Sunday, August 24, 2008

मैं अपनी छत पे बैठा यह सोच रहा था
की यह दुनिया कहाँ जा रही है
गर मैं सोचता हूँ की यह दुनिया जा रही है
या हम कहीं और जा रहा हैं
फिर मुघे ख्याल आता है
की हम समय के आगे चल रहे हैं
दौड़ रहे हैं ज़िन्दगी की खींचा-तानी मे
मैं अपनी छत पे बैठा लोगों की भीड़ को देखता हूँ
और ख़याल आता है
की कहीं हम अपने काम मे इतने घूम तो नहीं हो गए
की अपने अस्तित्व को ही भूल गए हैं
मैं अपनी छत पे बैठा अपने आप को देखता हूँ
फ़िर अपनी घड़ी को टटोलते हुए
निकल पड़ता हूँ, उसी भीड़ मे,
जिसमे सब जा रहे हैं
तनहा
अपनी मंजिल की तलाश मे
उस मंजिल की ओउर जो कभी दिखाई नहीं देती
बस एक धुंदली सी शक्सियत नज़र आती है
मैं अपनी छत पे बैठा यह सोचता हूँ
की हम कहाँ जा रहे हैं !!

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